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Showing posts from November, 2010

लंगुरिया :भदावर की माटी की सौंधी-सौंधी गंध

लंगुरिया : भदावर में गाया जाने वाला लोकगीत है भदावर के लोकगीत लंगुरिया में चंबल की माटी की सौंधी-सौंधी गंध महकती है। लांगुरिया भजन  करौली की कैलादेवी की स्तुति में गाए जाते है लांगुरिया - काल-भैरव जो कैलादेवी का गण है को सम्बोधित करते हुए गाए जाते हैं। भैरव शब्द का अर्थ ही होता है - भीषण, भयानक, डरावना, भैरव को शिवपुत्र भी माना जाता है। भदावर की मिटटी पर यह भीषण, भयानक, डरावना काल-भैरव भी लांगुर-लांगुरिया बन, करौली की कैलादेवी के मंदिर तक पदयात्रियो के साथ-साथ नाचता हुआ चलता है महिला एवं पुरूष उससे संवाद करते करते सफ़र की थकान भूल जाते है। महिला एवं पुरूष बडे ही भक्तिभाव से कैलादेवी और लांगुरिया को रिझाने के लिए लोकगीत गाते हैं। भदावर के गाँव-गाँव से ध्वज पताकाओं, नेजों के साथ छोटे-छोटे मंदिर वाहनों पर सजाकर गाते-बजाते, नाचते-कूदते भावविभोर होकर करौली मां के दरबार में अपनी मुरादें पूरी करने के लिए चल पड़ते है तथा मार्ग में लांगुरिया को सम्बोधित करते हुए गा उठते है :-    करिहां चट्ट पकरि के पट्ट नरे में ले गयो लांगुरिया॥ टेक॥ आगरे की गैल में दो पंडा रांधे खीर, चूल्ही फ़ूंक