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लंगुरिया :भदावर की माटी की सौंधी-सौंधी गंध


लंगुरिया : भदावर में गाया जाने वाला लोकगीत है भदावर के लोकगीत लंगुरिया में चंबल की माटी की सौंधी-सौंधी गंध महकती है। लांगुरिया भजन  करौली की कैलादेवी की स्तुति में गाए जाते है लांगुरिया - काल-भैरव जो कैलादेवी का गण है को सम्बोधित करते हुए गाए जाते हैं। भैरव शब्द का अर्थ ही होता है - भीषण, भयानक, डरावना, भैरव को शिवपुत्र भी माना जाता है।
भदावर की मिटटी पर यह भीषण, भयानक, डरावना काल-भैरव भी लांगुर-लांगुरिया बन, करौली की कैलादेवी के मंदिर तक पदयात्रियो के साथ-साथ नाचता हुआ चलता है महिला एवं पुरूष उससे संवाद करते करते सफ़र की थकान भूल जाते है। महिला एवं पुरूष बडे ही भक्तिभाव से कैलादेवी और लांगुरिया को रिझाने के लिए लोकगीत गाते हैं।
भदावर के गाँव-गाँव से ध्वज पताकाओं, नेजों के साथ छोटे-छोटे मंदिर वाहनों पर सजाकर गाते-बजाते, नाचते-कूदते भावविभोर होकर करौली मां के दरबार में अपनी मुरादें पूरी करने के लिए चल पड़ते है तथा मार्ग में लांगुरिया को सम्बोधित करते हुए गा उठते है :-  
करिहां चट्ट पकरि के पट्ट नरे में ले गयो लांगुरिया॥ टेक॥
आगरे की गैल में दो पंडा रांधे खीर, चूल्ही फ़ूंकत मूंछे बरि गयीं फ़ूटि गयी तकदीर॥ करिहां॥
आगरे की गैल में एक लम्बो पेड खजूर, ताके ऊपर चढि के देखियो कैला मैया कितनी दूरि॥ करिहां॥
आगरे की गैल में एक डरो पेंवदी बेर, जल्दी जल्दी चलो भवन को दरशन को हो रही देर॥ करिहां॥
आगरे की गैल में लांगुर ठाडो रोय,लांगुरिया पूरी भई भोर भयो मति सोय॥ करिहां॥


करौली नामक स्थान पर कैला देवी का एक मंदिर है नवरात्रि के दिनों में देवी के मंदिरों में गीत-संगीत की विशेष धूम रहती है। महिलाएँ ढोलक पर थपकियाँ लगाते हुये नृत्य गायन में मस्त हो जाती है तो ग्रामीण पुरुष बासुरी के स्वर में लंगुरियों के गीत गुनगुनाते है। भारतीय लोक संस्कृति मे लंगुरिया का विशेष स्थान रहा है देवी के इन लोकगीतों में नर-नारियों के मनोभावनाओं के दर्शन होते हैं श्रद्धा और भक्ति छलकती है और परस्पर नाट्य भावना के अन्तर्गत संवाद भी सुनाई पड़ते हैं। लंगुरिया नटखट-प्रेमी रूप में भक्ति काव्य में श्री कृष्ण का वाचक हो जाता है पति-पत्नी के वार्तालाप को इंगित करते हुए ये गीत भदावर में जगह-जगह गूज रहे है :
  • में मरुगी जहर-विष खाए रे लंगुरिया, मति हस अइयो काउ और ते
  • करि लीजो तू दुसरो ब्याह रे लंगुरिया, मेरे भरोसे मति रहियो
  • कोरी चुन्दरिया में दाग न लागियो रे लंगुरिया

जन मानस ने इन गीतों को गाते-गाते विविध रूप प्रदान किए हैं। लाखों कंठों ने गा-गा कर और लाखों लोगों ने मुग्ध होकर सुन-सुन कर इन गीतों को परम शक्तिशाली और हृदयस्पर्शी बना दिया है। कैलादेवी भी भक्तो की भक्ति-भावना व उल्लाष देख कर बोल उठती है

जती रे, घर की चिन्ता मत करियो, मेरे लटक भवन चले आओ, ॥जती रे ॥
घर पे बसाये देउंगी जोगनी, और दरवाजे लंगूर बलबीर, ॥जती रे॥
घर की चिन्ता मत करियो, भैंस-गईयन पै चित मत धरियो,
भैंस-गईयन पै चित मत धरियो, मेरे लटक भवन चले आओ, ॥जती रे।’॥

उन कटीले जंगलों की अनेक परेशानी भरी यात्रा में जोगिनी कह उठती है

ऐसी कहा महारानी, तू तो बैठी विकट उजाड़न में
अरी मेरी चुनरी अटकी झाड़न में
ऐसी कहा महारानी तू तो बैठी विकट उजाड़न में।

'लंगुरिया' गीत को कई और नामो से जाना जाता है 'कोस-कोस में पानी बदले, तीन कोस में बानी' को चरितार्थ करती इस धरती पर लोक विधायें भी थोड़ी-थोड़ी दूर पर बदल जाती है। इस प्रकार यहां की संस्कृति में देवी-गीतों का गायन कहीं '''अचरी''' तो कहीं '''ओमां''' तो कहीं '''जसगीत''' के रुप में दिखाई देता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि लोकगीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियां गाती हैं, फसलें गाती हैं पर समय बदल रहा है और पुरानी पीढ़ी द्वारा हस्तान्तरित व नयी पीढ़ी के द्वारा पूर्ण रुचि न लिये जाने के कारण आज के लोक-कलाकारों के प्रदर्शन में भी वह बात नही रह गई है। लंगुरिया लोकगीत को नयी पीढ़ी भुलाती जा रही है इस सन्दर्भ में श्री उमेश अपराधीब ये पंक्तिया सटीक बैठती है इन पंक्तियों में भविष्य के चिंता भी है और आशा की किरण भी :-

"काका बोले - आने वाले बच्चे कैसे जानें - कैसे मुर्गा बोले ?
चक्की के संग पिसा - लांगरा और लंगुरिया
देहरी हुई लाल - बडे भैया की कोई सगाई लाया,
बूढी काकी तक ने - फिर सिंगार टटोले।"

लांगुरिया गीत की गायन शैली इस वीडियो में देखी जा सकती है। 



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