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भदौरिया कुटुम्ब

भदौरिया एक प्रशिद्ध और राजभक्त कुल है इनका नाम ग्वालियर के ग्राम भदावर पर पड़ा भदौरिया साम्राज्य का उदय  चम्बल घाटी के खारों  में बड़ी ही विसम पर्तिस्थियों में हुआ ।  उनके गढ़ पर समय समय पर सय्यिद राजाओ का आक्रमण होता रहा । भदौरिया हमेशा ही दिल्ली के सुलतान से बगावत करते रहे, वे अपने शौर, उग्र सव्भाव और स्वाधीनता प्रेम के लिए जाने जाते है। 

इस कुटुम्ब के संस्थापक मानिक राय (720-794), अजमेर को मना जाता है, उनके पुत्र राजा चंद्रपाल देव (चंद्रवार के राजा 794-816) ने "चंद्रवार" रियासत की स्थापना की और वहां एक किले का निर्माण कराया। चंद्रवार 1208 तक भदौरियो के अधिपत्य में रहा । मुगलों ने बाद में इस का नाम फिरोजाबाद  कर दिया।

चन्द्रपाल देव के पुत्र राजा भदों राव (816-842) लोकप्रिय नाम "भादूराणा" ने भदौरागढ़ नामक नगर बसाया (इसका वर्तमान नाम पिनहाट है ) और उन्होने 820 में उत्तंगन नदी के तट पर किले का निर्माण कराया । 'भदौरा' के निवासी भदौरिया नाम जाने जाने लगे। राव कज्जल देव (1123-1163) ने 1153 में हथिकाथ पर कब्जा किया और अपनी राज्य की सीमओं को आज की बाह तहसील तक बढ़ा दिया ।

राजा शल्य देव (1194-1208) (उन्हे सेल्ला देओ या राउत साल के नाम से भी जाना जाता है) गौरी शाह के हमलो के दौरान हुई अफरातफरी का फायदा उठाया और मीरुत और फर्रुखाबाद पर कब्जा कर लिया। इस कुल ने 1208 तक चंद्रवार पर राज्य किया। 1208 मे गुलाम वंश के पहेले सुलतान कुतुबुद्दीन ऐबक ने भदौरागढ़ पर आक्रमण किया और विषम युद्ध में दोनों तरफ़ नर्संघार हुआ।

इस नर्संघार में राजा राउत साल के वीरगति को प्राप्त होने पर, महल में उनकी दो रानियों ने जोहर कर लिया, एक रानी जो गर्भवती थी,परम्परा के अनुसार गर्भवती को वँश-रछार्थ जोहर की आज्ञा नही होती थी अतः रानी को हथिकाथ के किला से राज्य के आचार्य श्यामदास और राज्य के चौकीदार भूपत मिर्धा ने, किले की नाली के रास्ते, जमुना पार सिकरवार (आज का फेतेपुर सिकिरी) उनके मैय्के (भाई राव शिखरदेव सिकरवार के पास ) तक लाया मिर्धा की इस सहायता को भदौरिया आज तक नही भूले भदावर की शादीयों में आज भी मिर्धा के नाम से हल्दी के थापे लगाये जाते है ।

इन रानी ने वहां एकमात्र भदौरिया वंशज बेटे को जनम दिया, उसका नाम रज्जू रखा गया, जब वह १२ साल का हुआ और तत्कालीन सम्राट नासिर-उद-दीन के दिल्ली दरबार में प्रस्तुत हुआ, सम्राट नासिर-उद-दीन इस इलाके के मेव लुटेरो से परेशान थे, १२ साल का यह भदौरिया बालक 'रज्जू राउत' मेवाती लुटेरों को आगरा के पिन्हाट से बाहर फेंकने की बात का सम्राट को अस्वासन देकर दरबार से विदा हुआ मेवो का हथिकाथ पर कब्जा था रज्जू राउत ने हथिकाथ पर धावा बोल दिया और मेवाती मुखिया हतियामेओ बेग से हथिकाथ किला अपने कब्जे में ले लिया  १२५८ में सम्राट नासिर-उद-दीन ने उसे भदावर रियासत का राजा घोषित कर दिया ।

भदौरिया राजपूत का गढ़  ग्वालियर के २६८८ x ७८४८.५४ मील उत्तर-पूर्व में स्थित होने के कारण भिंड और ग्वालियर स्थानीय रूप में "भदावर" नाम से जाने जाते है । हथिकाथ किला चम्बल घटी मैं स्थित था और भदौरिया का विख्यात प्रधान-मुख्यालय था ।

एक पाण्डुलिपि के अनुसार 1640 में आगरा के भदौरिया का उलेख इस प्रकार किया गया है " वो एक असंख्य उद्यमी और वीर योद्धा थे, उनके हर गाँव में किला और किलेबंदी थी, वो बिना युध्य के कभी भी जागीरदार या हाकिम को लगान नहीं देते थे, रियाया जो हल चलती थी, उनके कंधे पर बंदूक लटकती थी और अंटी में अभरक बंधा होता था  उन्हे लगान माफी के रूप में हाकिम से (अभरक और गंधक) बारूद मिलता था ! "

भदौरिया इस युग में चम्बल के बीहड़ो में बसे हुए थे और जनता का खान- पान  ज्वर-बाजरा तक ही सीमित था  अरहर, चना और मुंग से बनी रोटी को भटुला या गंकर कहा जाता था यह अपनी कठोरता के लिए कुप्रसिद्ध है, और इसी लिए जो लोग बेहतर अन्न उगाने व खरीदने में समर्थ है वे बिरले ही इसे खाते थे । ऐसा कहा जाता है की भटुला ही भदौरिया के उत्कर्ष का कारण रहा था ये कहानी अनर्गल व हास्यास्पद लगती है, लेकिन समीपत्व भदावर में सामान्यतः इस पर विश्वाश किया जाता है, और भदौरिया स्वयं भी इसका खण्डन नही करते है ।

भदावर महाराजा गोपाल सिंह, सम्राट मुहमद शाह से मिलने उनके दरबार में पहुचे, महाराजा की आंखें बहुत बड़ी बड़ी थी, इतनी बड़ी की सम्राट का भी ध्यान आकर्षित कर लिया, सम्राट ने पूछा की आपकी आंखें इतनी बड़ी कैसे हुई ? भदावर महाराजा ने अपने परिहस चातुरी का परिचय देते हुए, जवाब दिया की उनके जिले मैं अरहर के अलावा कुछ नही पैदा होता है, और भटुला लीलने कि निरंतर तनन के कारण ही उनकी आंखें बाहर निकल आई है सम्राट उनकी हाजिर जवाबी से प्रसन्न हुआ, और उन्हे एक अन्य परगना प्रदान किया जहाँ बेहतर अन्न उगाये जा सके ।

भदौरिया हमेशा ही दिल्ली के सुलतान से बगावत करते रहे, वे अपने शौर, उपद्रवी सव्भाव और स्वाधीनता प्रेम के लिए जाने जाते है  अधम खान ने हथिकाथ किले को अपने अधिकार में ले लिया, और दिल्ली के सुलतान ने उसे किला जागीर में दे दीया ।

जुलाई ७, १५०५ के अति दारूण भूकम्प से जान-माल की हानि हुई, उसी वर्ष भदौरिया राजपूतो ने हथिकाथ, पिन्हाट तहसील में राजद्रोह कर दीया, पर उसका दमन कर दिया गया ! सिकंदर लोधी ने भदौरीयो के दमन के बाद उन पर अंकुश रखने के लिए हथिकाथ से आगरा तक थानों का निर्माण कराया. सुलतान ने अपनी राजधानी के उत्तरी नगर प्रान्त में 'सिकन्दरा' नाम के गाँव की स्थापना की और वहा लाल पत्थर की बरादरी का निर्माण किया ।

जब मुगलों के साम्राज्य का पतन हो रहा था, तब भदौरिया प्रभावशाली व सर्वशक्तिमान थे १७०७ में सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के बाद हुयी लडाई में भदावर के राजा कल्याण सिंह भदौरिया ने पर धौलपुर कब्जा किया और १७६१ तक धौलपुर भदावर रियासत का हिस्सा रहा  १७०८ में भदावर सैनिक, उम्र-ऐ-उज्ज़म महाराजाधिराज श्रीमान महाराजा महेंद्र गोपाल सिंह भदौरिया नये गोंध पर धावा बोला, राणा भीम सिंह को युद्ध में हरा कर गोंध के किले पर कब्जा किया और गोंध को भदावर में मिला लिया १७३८ तक गोंध भदावर की हिस्सा रहा १७४८ में मराठो और जाटो ने उनके राज्य का बड़ा भाग हतिया लिया कुछ समय पश्चात् ही, भदौरिया राजा ने अपने भूभाग पर कब्जा कर लिया, और ग्वालियर के मराठा दरबार में दोस्ती का प्रस्ताव रखा, किन्तु मरोठो के विरुद्ध अपने मित्र गोंध के राणा की मदद करने के कारण उन्हे, सिंधिया के कोप का भाजन होना पड़ा, और ये कुल 1803 के मराठा युद्ध तक विसम परिस्थिति में रहा ।

भदौरिया चार श्रेणी में बटे हुए है ये बिभाजन सताब्दी में राजा रज्जू राउत (भदौरा के राजा 1228-1262) के चार पुत्रो से शुरु हुआ जो उनके चार विवाहों से हुए क्रमशा :-

(1). कुंवर बामदेओ (पहला विवाह - बरसला, पिनाहट के राव खीरसमद की पुत्री से) वामदेव को राव की उपाधि मिलने से वे राव वामदेव कहलाये तथा उनके वँशज राउत भदौरिया के नाम से जाने जाते है कनेरा गाँव में बसे ।

(2). कुंवर मानसिंह ( दुसरा विवाह - असा मुरेना के राव गुमम सिंह तोमर की पुत्री से) के वँशज मैनू भदौरिया के नाम से जाने जाते है और वे पवई गाँव (भिंड) में बसे ।

(3). कुंवर तस्-सिंह (तीसरा विवाह - नर्केजरी, राजस्थान के राव ज्ञान सिंह गौर की पुत्री से) के वँशज तसैले भदौरिया के नाम से जाने जाते है और वे अकोड़ा गाँव (भिंड) में बसे ।

(4). राजा उदय राज -भदौरा के  राजा 1262-1296 (चौथा विवाह - लाहार के राजा कारन सिंह कछवाहा की पुत्री से) राजा हुए 14वीं शताब्दी तक उनका वंश बिना किसी विभाजन के चला 1427 में जैतपुर की स्थापना करनेवाले राजा जैतसिंह के भाई कुंवर भाव सिंह 1440 में कालपी के नवाब कुल्हादीन खाँ के लहार पर आक्रमण को विफल किया और नवाब को मार कर उसका कुल्हा (राजमुकुट) छीन लिया, इस घटना के बाद से कुंवर भाव सिंह के वँशज कुल्हैया भदौरिया के नाम से जाने जाते है। राजा उदय राज के वंश के तीन विभाजन हुए चंद्रसेनिया, अठभईय्या और राजवंश (महाराज भदावर) 

(5).पाँचवी पीढ़ी मेँ राजा चन्द्रसेन (भदौरा के राजा-1464-1480) बने, इनके दुतीय पुत्र बीरम देव के वँशज चन्द्रसेनिया भदौरिया कहलाये ।

(6).राजा रुद्र प्रताप (भदौरा के राजा-1509-1549) और उनकी तीसरी रानी (पुत्री राजा मदन सिंह परिहार, रामगढ़, एटा ) के पुत्र राजा मुक्तमन (भदौरा के राजा-1549-1590), गद्धी पर बैठे, इनके 14 पुत्र हुए जिनमेँ 6 निसन्तान रहे, शेष 8 के वँशज अठभइया भदौरिया कहलायेका वंश अठभईया भदौरिया के रूप में जाना जाता है आठ बड़े भाइयों की वरीयता में राजा मुक्तमन अपने पिता के उत्तरअधिकारी होने में सफल हुए थे।

इस प्रकार क्रमानुसार कुल सात शाखायेँ हैँ । प्रथम शाखा राजवँश है जो अनेक झँझावतोँ का सामना कर आज तक विद्यमान है भदौरियोँ के वँश लेखक राजवँश को अलग मान कर वरीयतनुसार निम्नलिखित छह शाखाओँ का वर्णन करते हैँ : (1) राउत (2) मैनू (3) तसेले (4) कुल्हैया (5) चन्द्रसेनिया (6) अठभईया

इस परिवार का गौरवपूर्ण इतिहास 1300 साल से अधिक दर्ज किया गया  है इस कुटुम्ब की सखाए  56 से अधिक पीढ़ियोंमें फैली हुई है।

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