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जाके बैरी सम्मुख ठाड़े, वाके जीवन को धिक्कार

दुनाली,पचफैरा,माउजर और मोटर सायकल के दीवाने चम्बल - भदावर, तँवरघार या बुन्देलखण्ड के वासी, हत्या, प्रतिशोध, अपहरण, प्रताडना, मुखबिरी और बेरोजगारी के माहौल में भी मूंछ पर ताब देकर कहते हैं...
भदावर
 “जाके बैरी सम्मुख ठाड़े, वाके जीवन को धिक्कार” ये प्रतिष्ठा व ठाकुरी-ठसक की मिसाल है मीडिया में इस इलाके पर जो लिखा गया उसमे पक्षपात की बू आती है, जो लिखा गया वो सही विश्लेषण नहीं है। माना की यहाँ का इतिहास विद्रोह से भरा पड़ा है और यह बगावत की भावना आज भी बरकरारा है, प्रतिष्ठा, प्रतिशोध और प्रताडना चंबल के खून में है पर यही वजह है कि यहां की धरती डाकू पैदा करती है तो सरहद पर देश की रक्षा के लिए शहीद होने वाले वीर सिपाही भी, चंबल इलाके से देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले कहीं ज्यादा लोग सेना में हैं 1965 और 1972 की लड़ाई के अलावा कारगिल युद्द के दौरान भी यहां के कई जवान शहीद हुए थे। तो सच है की "पानीदार यहां का पानी, आग यहां के पानी में"
चंबल की यह घाटी महर्षियों की तपोभूमि और क्रंतिकारियों तथा कलाकारों की साधना स्थली रही है, यह बात दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से हर बार उपेक्षित रह जाती है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जब पूरे देश में लौ बुझने लगी थी तो चंबल और यमुना के दोआब में रूपसिंह और निरंजन सिंह ने तात्याटोपे और शाहजादा फिरोजशाह को साथ लेकर फिरंगी सेना को धूल चटाते हुए यहां आजादी का परचम फहराकर एक नया इतिहास लिख दिया था। यहां के भदावर और तोमर राजाओं ने भी अंग्रेजों और मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। इसी चंबल की माटी के पुत्रों को बागी संबोधन का क्रांतिकारी चेहरा देनेवाले मैनपुरी षड्यंत्र कांड के पंडित गैंदालाल दीक्षित ने मई गांव में ही बैठकर क्रांति का ताना-बाना बुना था और उनके शिष्य काकोरी कांड के महानायक पंडित रामप्रसाद बिस्मिल (तंवरघारः अंबाह के थे) ने भदावर राज्य के पिनाहाट और होलीपुरा में फरारी के दिनों में मवेशी चराते हुए “मनकी तरंग” और “कैथराईन” - जैसी साहित्य कृतियों का सृजन किया था। 

समूचे भदावर क्षेत्र में जिस वक्त ‘काकौरी’ क्रांति बिगुल बज रहा था। महात्मा गांधी के नमक आंदोलन के दौरान ककरिया ईंट पर नमक की फसल पैदा करने में भदावरवासी पीछे नहीं थे। भदावर स्कूल छात्र-आन्दोलन ने बटेश्वर, कचौराघाट, पारना, जैतपुर, जरार, पिनाहट, बासौनी, उमरैठा, लखनपुरा, बाघराजपुरा, आदि गांवों में क्रांति की ज्वाला को भड़का दिया, अंग्रेजों के भदावर स्कूल को मान्यता देने के प्रलोभन पर भी, ये आन्दोलन बंद नहीं हुआ था।


जब बटेश्वर के आसपास क्षेत्र को अग्रेजो ने वन भूमि घोषित कर दिया और ग्रामीणों को जलाऊ लकड़ी एकत्र करने व वन क्षेत्र में मवेशि चराने पर जुर्माना किया जाने लगा। तो भदावरी छात्रों ने, इस वन क़ानून को गाँधी जी के भारत छोड़ो आन्दोलन से जोड़ा और “भुजरिया मेले” के आड़ में आल्हा गीत गाते, बटेश्वर की वन चौकियों पर पहुचे और वहाँ उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगाए व वन चौकी पर तिरंगा फहराया और ब्रिटिश शासन से मुक्ति की घोषणा की, आजादी की भावना से ओतप्रोत ये जुलुश नारे लगता और देशभक्ति के गीत गाता आगे बिच्कोली की तरफ बढ़ा और रास्ते की चौकियों से ग्रामीणों के जब्त पालतू जानवरों आज़ाद को करता गया।


बटेश्वर गांव में जहां पुलिस ने 28 अगस्त,1942 को औपनिवेशिक शासन के घृणित और क्रूर चेहरे की एक झलक दिखाई, आन्दोलन को तोड़ने के लिए छात्रों पीटा व गिरफ्तार किया - अब गांधी चबूतरा के नाम से जाना जाता है। इस आन्दोलन के गुमनाम नायको को शत-शत नमन व श्रद्धांजलि।

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