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हथकांत की गौरव गाथा


हथकांत भदौरियों की चार चौरासियों में से एक है अन्य तीन चौरासी अकौडा, कनेरा, मावई है। हथकांत मध्यकाल में रवितनया-जमुना एवं विन्ध्याकुमारी-चम्बल के मध्य विषम खरो, गहन-वन के बीच एक समृद्ध नगर था। जिसे हस्तिक्रान्तिपुरी के नाम से जाना जाता था बाद में ये हथकांत के नाम से जाना गया। हथकांत अपने गहन सघन कान्तारों के लिए प्रसिद्ध रहा है। महाभारत काल में हथकांत क्षेत्र को ‘महत् कान्तार’ (गहन-वन, अथवा दुर्गम-पथ) कहा गया हैं। यह वीर-प्रसवनी भूमि ऊँचे-नीचे कगारों-टीलों पर प्रकृति की बिछाई हुई विपुल वन-राशि से सुशोभित अति रमणीक और सुहावनी है। भदावर की प्राचीनतम राजधानी हथकांत ही थी, जो पिछले कुछ समय तक, चम्बल नदी तट पर खण्डहर भव्य-भवनों व देवालयों का एक जनशून्य-उजाड़ ग्राम के रूप में दश्यु गिरोहों की आश्रय स्थली बनी रही थी।

हथकांत किले के चम्बल के बीहड़ो में स्थित होने के कारण, सामरिक महत्व रहा है। हथकांत किला चम्बल घाटी मैं स्थित भदौरियों का विख्यात प्रधान-मुख्यालय था। हथकांत किले का निर्माण ईंटों और गारा-मिटटी से हुआ था किले में मुख्य रूप से दो प्रकार की ईंट प्रयुक्त हुई -लखुरी ईंट व कुषाड ईंट। लखुरी ईंटों का अनुपात बहुत कम था और कुषाड अवधि की ईंटों का दरियादिली से पुनः प्रयोग हुआ था। हथकांत के गौरवपूर्ण दिनों से लेकर आज तक जो महत्वपूर्ण घटनाये घटी उन्हें यहाँ क्रमबंध करने का प्रयास कर रहा हूँ :

चंद्रावर और भदौरा-गढ़ के बाद राजा कज्जल देओ ने सन् 1153 में भदावर राज्य की सीमा को बढाया और हथकांत किले को मजबूत किया। सन् 1208 में दिल्ली के प्रथम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक और भदावर महाराजा शल्यदेव के भदौरा युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने के बाद भदावर राज्य का सूर्योदय सन् 1228 में उनके पुत्र रज्जु राउत की हथकांत विजय के साथ हुआ।

राजा जैतसिंह सन् 1428 में मुबारक शाह के साथ हुए युद्ध में हथकांत किले पर अपना कब्ज़ा बनाये रखने में असमर्थ रहे, ‘तारीखे मुबारकशाही’ से हमें ज्ञात होता है कि हथकांत का शासक इस युद्घ में अपनी सुरक्षार्थ राय जालौन (जालहार) की पहाडिय़ों की ओर चला गया था। पर जल्द ही सन् 1434 में राजा जैतसिंह ने इसे फिर से अपने कब्जे में ले लिया।

हथकांत के जमींदार, मुग़ल सल्तनत को चुनौती देते रहते थे। जुलाई 6, 1505 के अति दारूण भूकम्प से जान-माल की हानि हुई, उसी वर्ष भदौरिया राजपूतो ने हथकांत में विद्रोह कर दिया, पर उसका दमन कर दिया गया।

मुग़ल सुल्तान हथकांत के सामरिक महत्व को समझ चुके थे। 30 अप्रैल 1509 में हथकांत को सुल्तान सिकंदर लोधी द्वारा जागीर में उधम खान को दिया गया इसका प्रयोजन भदौरिया राजपूतो पर अंकुश रखना था। सिकंदर लोधी ने हथकांत से आगरा तक थानों का भी निर्माण कराया।

सन् 1540 में सिंहासन आरोहण के बाद शेर शाह सूरी, सरहिंद सरकार से 2000 अफगान घुड़सवार लाया, और उन्हें हतकांत थाने में अपने प्रभावी नियंत्रण के लिए तैनात किया था ।

अपने सामरिक महत्व के कारण हथकांत को नियंत्रण में रखने के लिए विभिन्न सुल्तानों द्वारा विभिन्न प्रयास विफल रहे और शक्तिशाली मुगल साम्राज्य की राजधानी में हथकांत हमेशा ही अपनी विद्रोही स्वतंत्र राजपूती छवि बनाए रखने में सफल रहा।

भदौरियों के गढ़ हथकांत का माननीय उल्लेख हमें पुस्तक "मख्ज़न-ऐ-अफगानी" में मिलता है। सन् 1580 में, अकबर ने मुगल अधिकार क्षेत्र को सुनियोजित किया था और क्षेत्र को बारह डिवीजनों में विभाजित किया गया था। इन डिवीज़न को "सूबा" कहा जाता था सूबों का विभाजन "सरकार" कहलाता था और सरकार का विभाजन "महल" के नाम से जाना जाता था। इस प्रकार आगरा सूबे में भिंड सरकार और महल हथकांत था। ब्रिटिश काल में हथकांत "महल" को दो भागो में विभाजित किया गया (1) पिन्हाट और (2) बाह, 1881 में पुनः पिन्हाट से तहसील हटा कर बाह स्थान्तरित की गई।

हथकांत आज भी खतोनियों में क़स्बा लिखा जाता है पर वास्तिविकता में वियाबान बीहड़ में आपने खण्डार होते महलो और मंदिरो के बैभव की दास्ताँ सुनते प्रतीत होते है, आज यहाँ तक जाने के लिए कोई सड़क मार्ग शेष नहीं बचा है।

हथकांत किले में काले पत्थर के गोरा पार्वती अति सुन्दर मूर्ति है जैनियों का भी यहाँ विहंगम मंदिर रहा है इस रियासत की कुल आबादी 29 हजार थी जहां कई दर्जन होली जलती थी और यही वो थाना था जहाँ अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन सन 1909 में चर्चित डकैत पंचम सिंह पामर और मुस्कुंड के सहयोग से क्रांतिकारी पंडि़त गेंदालाल दीक्षित ने थाने पर हमला कर 21 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार कर हथियार लुटे गए थे। इस घटना के बाद ही जैतपुर थाने की स्थापना हुई।

हथकांत में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की कहानी अगली पोस्ट में बताऊंगा ... संपर्क में बने रहे धन्यवाद ।

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