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भदावर - लोक-गीतकार

दावर प्रदेश में नैसर्गिक सौंदर्य कूट कूट के भरा है यमुना और चम्बल के खारों में उगते बबूल, छेंकुर, हिंसिया, रेमजा आदि के वृक्ष रहस्यमई वातावरण का सृजन करते है तभी तो चौबे लक्ष्मीनारायण गा उठते है -

भव्य भदावर धन्य धन्य तब भूमि पुरातन,
जहाँ चम्बल लहरात बहति जमुना अति पावन।
जित देखो बन विकट रेत चहुँ दिस धूल छाई,
बेहड़ की शोभा अपार कछु बरनि न जाई।
कहुँ ऊँचे है व्योम बादरन सों बतरावत,
कहुँ नीचे धंसि धुव पाताल की सैर दिखावत।
हरे भरे जे दिव्य वृक्ष आरोपित कीन्हे,
सब तुम भय सों सूख प्राण अपने तनि दीन्हें।

पौरुष और साहस का सदुपयोग करते हुए सरल और शालीन जीवन व्यतीत करनेवालों की यह भूमि भद्र-देश के नाम से विख्यात रही है, जिसे भदावर कहा जाने लगा और यहाँ के निवासी भदौरिया कहे जाते है। भदावर प्रदेश की भगौलिक स्तिथि का सामरिक दृष्टि से विशेष महत्व रहा है यहाँ के कछारों में छिपे थोड़े से सैनिक विशालतम सेना के छक्के छुडाते रहे थे नदियों के कटाव और कटीली झाडियों से भरे ऊँचे नीचे बीहड़ से होकर संकीर्ण पगडण्डी मार्ग एसे है जिन्हें केवल स्थानीय लोग ही जान सकते है बाहर से आने वालों के लिए ये मार्ग दुर्गम और कष्टप्रद हो जाते है इसीलिए बाहर के आक्रमणकारियों को इस प्रदेश में प्रवेश करने का साहस नहीं होता था तभी तो एक कवि ने कहा है

आवत जात मझावत बेहद, खाल खुसे कपड़ा फटि जावें,
बरसात भए गंभीर चढ़े, चहुँ ओरन तें नदियाँ घिर आवें।
जमुना चम्बल के खारन में, पांव परे तो पार न पावें,
ईश को नाम सदा जपिए, जो भूलकें आप भदावर आवें। 

ऐसे नीरस जीवन में रस का संचार करने वाली कुछ गिनी-चुनी घड़ियाँ होली-दिवाली जैसे पर्वों तथा शादी-विवाह के अवसरों पर उन्हें मिल पाती थी। ऐसे अवसरों पर भदावर में चम्बल किनारे के गाँव में बहुत चहल-पहल रहा करती थी। अनेक गाँवों के लोग निमंत्रित होते थे जिनमे लोक-गीतकार भी होते थे। शाम को फर्श और जाजम बिछा दिए जाते, पुरुष भूमि पर और स्त्रियाँ मकानों की छत पर, कुछ देर बात हण्डे के प्रकाश में चबूतरे पर लोक-गीतकार भी आजाते। हरमोनिम बजने लगा और ढोलक पर थापे पड़ने लगी, हण्डे के प्रकाश में नीम के पेड़ भी चमक उठे, लगता था जैसे प्रकृति भी समारोह में योगदान दे रही है। हरमोनिम और ढोलक की बढ़ती थापों के साथ गीतकार ने भी सरगम की तान खींची और गीत शुरू हुआ -


पर-नारि छुरी की धार है
कोउ मति परिओ फन्दा में। 
गौतम रिसि के घर जाएकेँ
लगि गऔ दागु चन्दा में। 
इन्दिर कौं पापु लगौ भारि
जग जानै। 
रावण कौ करि दऔ नासु एक सीता नै
रहौ न पानी-देवा।
कीचक, जाके डूबौ रस में।
सिंगी रिसि-से, करि लए बस में। 
भस्मासुर डारौ मारि रे

बलि बली संघारौ, हनि एक बान सौं मारो। 

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