हरेकृष्ण सिंह भदौरिया का जन्म सन् 1827 में बिहार के तत्कालीन शाहाबाद ज़िले (वर्तमान में भोजपुर ज़िला) के बारुही (पुराना नाम बारुभी) गांव में हुआ था। यह गांव अब बिहार के भोजपुर जिले के सहर प्रखंड में आता है। उनके पिता श्री ऐदल सिंह भदौरिया एक प्रतिष्ठित जमींदार थे, जिनकी जमींदारी पीढ़ियों से चली आ रही थी। उनका परिवार मूल रूप से क्षत्रिय भदौरिया वंश से संबंधित था, जो उत्तर भारत के गौरवशाली योद्धा वर्ग से ताल्लुक रखता है।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले हरेकृष्ण सिंह भदौरिया, जगदीशपुर रियासत के अधीन “पीरो” परगना के तहसीलदार थे। वे प्रशासनिक दृष्टि से कुशल, कूटनीतिक और लोगों में लोकप्रिय थे। उनकी नेतृत्व क्षमता के चलते उन्हें, जगदीशपुर रियासत के उज्जैनिया वंश के राजा बाबू कुँवर सिंह परमार का विश्वास प्राप्त हुआ और उन्हें कमांडर इन चीफ बना कर सैन्य मामलों की ज़िम्मेदारी सौंपी गई।
1857 की क्रांति में योगदान : हरेकृष्ण सिंह भदौरिया 1857 की क्रांति (1857 rebellion) के प्रारंभिक योजनाकारों में से एक माने जाते हैं। यह वही समय था जब ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारत के विभिन्न हिस्सों में विद्रोह की चिंगारी भड़क चुकी थी। उन्होंने राजा बाबू कुँवर सिंह परमार को विद्रोह के लिए प्रेरित किया और ब्रिटिश सेना में विद्रोह कर चुके सिपाहियों को जगदीशपुर में संगठित करने में अहम भूमिका निभाई।
वे दानापुर छावनी में भारतीय सैनिकों की स्थिति का जायज़ा लेने भेजे गए थे और वहां से लौटकर उन्होंने न केवल रिपोर्ट दी, बल्कि सैकड़ों सैनिकों को ब्रिटिश सेना छोड़ कर विद्रोही दल से जोड़ने में सफलता पाई। उन्होंने आरा पर ब्रिटिश हमलों का भी साहसपूर्वक मुकाबला किया, हालाँकि बाद में भारी लाव-लश्कर से लैस ब्रिटिश सेना के कारण उन्हें आरा और जगदीशपुर किला छोड़कर सासाराम की पहाड़ियों की ओर पीछे हटना पड़ा।
उन्होंने बाबू कुँवर सिंह के साथ मिलकर मध्य और उत्तर भारत में कई जगहों पर क्रांतिकारी गतिविधियाँ चलाईं। अप्रैल 1858 में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारी "ले ग्रांट" को हराया और घायल राजा बाबू कुँवर सिंह के साथ जगदीशपुर किले पर फिर से कब्जा किया।
राजा बाबू कुँवर सिंह की मृत्यु के बाद उन्होंने उनके छोटे भाई बाबू अमर सिंह परमार के नेतृत्व में क्रांतिकारी प्रशासन को मज़बूती प्रदान की। वे अब पूरे प्रशासन के प्रमुख बन गए और सेना को फिर से संगठित कर जगदीशपुर की किलाबंदी की, कर संग्रहण प्रणाली में सुधार किया और गद्दारों के खिलाफ कठोर कदम उठाए।
ब्रिटिशों ने उनकी गिरफ्तारी पर पहले ₹1,000, फिर ₹3,000 और अंततः ₹5,000 का इनाम घोषित किया।
अंतिम संघर्ष और गिरफ्तारी : जब ब्रिटिश ने सेना ब्रिगेडियर डगलस के नेतृत्व में 18 अक्टूबर 1858 को जगदीशपुर किले पर विकट आक्रमण किया, उसे छह अन्य ब्रिटिश टुकड़ियों का समर्थन प्राप्त था। उनकी अपनी सेनाएं उस दुर्जेय ब्रिटिश सेना का मुकाबला करने में बिल्कुल भी सक्षम नहीं थीं। तो उन्होंने रणनीतिक रूप से नगर को खाली कर दिया और अपने दल को छोटे-छोटे गुटों में बाँटकर सासाराम की पहाड़ियों की ओर कूच कर गए। वे कई महीनों तक ब्रिटिश सेना से छापा मार युद्ध करते रहे, चकमा देते रहे, लेकिन अंततः 29 अगस्त 1859 को बनारस जिले में बंदी बना लिए गए।
ब्रिटिश साम्राज्य ने उन्हें आरा जेल में बंद कर "देशद्रोह" का मुकदमा चलाया और दिसंबर 1859 में मृत्युदंड की सज़ा सुनाई। उन्हें बनारस से जगदीशपुर लाया गया और नगर के मुख्य बाज़ार में सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी गई। राजपूती शान और स्वाभिमान को कायम रखते हुए वे शहीद हुए।
राजा कुँवर सिंह परमार के एक पूर्व सेनापति रंजीत राम ने बाद में कहा था कि “कुँवर सिंह की मृत्यु के बाद हरे कृष्ण सिंह भदौरिया ही जगदीशपुर रियासत के प्रमुख बन गए थे और समस्त खजाने की ज़िम्मेदारी उनके पास थी।” उनका प्रशासनिक कौशल, सैन्य नेतृत्व और राष्ट्रभक्ति, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में प्रेरणादायक अध्याय है।
वर्तमान वंशज और स्मृति - भदौरिया परिवार आज भी बिहार, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में फैला हुआ है। हरेकृष्ण सिंह भदौरिया की वीरता और बलिदान को स्थानीय लोकगीतों और पारिवारिक परंपराओं में याद किया जाता है। हालांकि राष्ट्रीय इतिहास में उन्हें उतना स्थान नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था, परंतु वह 1857 के संग्राम के एक गुमनाम नायक थे, जिनकी भूमिका आज भी पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्त्रोत है।