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भदावर गौरव गेंदालाल दीक्षित

आगरा की बाह तहसील के मई गांव में जन्मे भदावर गौरव गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर सन् 1888 ई० को हुआ। श्री गेंदालाल दीक्षित औरैया के दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालय में अंग्रेजी के अध्यापक थे । वह 'बंगाल विभाजन' के विरोध में चल रहे बालगंगाधर तिलक के स्वदेशी आंदोलन से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने पहले शिक्षित जनों ( गिन्दन गुट) का संघटन बनाने का प्रयास किया परन्तु उसमें सफल न हो सके। जब अंग्रेज प्रथम विश्व युद्ध में फंसे हुए थे, उसी दौरान गेंदालाल दीक्षित ने शिवजी समिति बना कर अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति शुरू कर दी। रामप्रसाद बिस्मिल को प्रेरणा देकर मातृवेदी की स्थापना की और चम्बल के बागी डाकुओं को क्रांति में उतरा
क्रन्तिकारी गेंदालाल दीक्षित

क्रन्तिकारी गेंदालाल दीक्षित भदावर गौरव गेंदालाल दीक्षित व बागी दुर्दांत डकैत लक्ष्मणानंद ब्रह्मचारी और डकैत ठाकुर पंचमसिंह के संगठित दल ने ग्वालियर तथा यमुना और चम्बल नदी के किनारे के भागों में सफलतापूर्वक अनेक डाके डाले और धन का उपयोग क्रांति के लिए हथियारों की व्यवस्था की, पर मुखबरी के कारण गेंदालाल दीक्षित के नेतृत्व में 'मैनपुरी षड़यन्त्र' ( Mainpuri Conspiracy ) की योजना असफल हो गयी।

गेंदालाल दीक्षित गिरफ्तार हुए और उन्हें ग्वालियर के किले की अँधेरी कोठरी में रखा गया, जहाँ उन्हें छय रोग हो गया पर वे जेल से भागने में सफल हो गये और किसी तरह अपने घर पहुंचे, वहां भी वे पुलिस की दबिश के करना नहीं रुक सके और सरदार के छद्दम भेष में दिल्ली पहुंचे, दिल्ली के आगरा रोड पर बने एक मंदिर में उन्होंने शरण ली और फरार हालत में जीवन-यापन के लिये उन्होंने एक प्याऊ में नौकरी कर ली, इस बीच क्षय रोग से हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी तो उन्हें दिल्ली के इर्विन अस्पताल में भर्ती कराया गया अंततः 12 दिसंबर 1920 को व अमर शहीद हो गए। उन्हें मैनपुरी षड्यंत्र केस में फरार घोषित किया और वे कभी पकडे न जा सके। दीक्षित जी उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों के द्रोणाचार्य कहे जाते है।

गेंदालाल दीक्षित एक जांबाज क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने साहसिक कारनामों से अंग्रेज़ी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था। आज़ादी के संघर्ष में चंबल घाटी का बाग़ी इतिहास क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य पंडित गेंदालाल दीक्षित के बिना अधूरा है। आज बहुत कम लोग जानते है कि गेंदालाल दीक्षित की एक मात्र मूर्ति औरैया इटावा के एक चौराहे पर लगी है बाकी उनको इस देश ने भुलाने की कोशिश ही की है। उनके जन्म जनपद में उनकी मूर्ति स्थापना को लेकर भी विवाद खड़ा किया जाता रहा है। आजादी के जंगे नायकों में हमने गेंदालाल दीक्षित जैसे लोगो के साथ न्याय नही किया है बल्कि गुमनामी में धकेलने का काम किया है। गेंदालाल दीक्षित, क्रांतिकारी दल ‘मातृवेदी के कमांडर-इन-चीफ़ थे और उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ उत्तर भारत में सशस्त्र क्रांति की गुप्त तैयारी कर ली थी, लेकिन अपने ही एक साथी की मुखबरी की वजह से उनकी सारी योजना पर पानी फिर गया और अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत करने के इल्ज़ाम में फाँसी पर चढ़ा दिए गए, सैकड़ों को काला पानी जैसे यातना गृहों में कठोर सज़ा हुई। हज़ारों लोगों को अंग्रेज़ सरकार के दमन चक्र का सामना करना पड़ा। बावजूद इसके गेंदालाल दीक्षित ने हिम्मत नहीं हारी और अपने जीवन के अंतिम समय तक मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करते रहे।  

गेंदालाल दीक्षित का जन्म आगरा की बाह तहसील के मई गांव में 30 नवम्बर 1888 में हुआ था।उनके  पिता का नाम भोलानाथ दीक्षित और माँ का नाम विचित्रा देवी दीक्षित था। जब गेंदालाल महज दो बरस के थे तब उनकी माँ बकेवर (इटावा) में चल बसीं और उनकी ताई ने उन्हें पाला पोसा। गांव के प्राइमरी स्कूल से शिक्षा प्रारम्भ की फिर ह्यूम हायर सेकेंडरी, इटावा से मिडिल और आगरा से मैट्रिक उत्तीर्ण किया, घर की आर्थिक परिस्थिति ठीक इन होने के कारण पढाई छोड़ कर नौकरी तलाशनी पड़ी और वे औरैया के दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालय में अंग्रेजी के अध्यापक हो गए। 1905 में वह 'बंगाल विभाजन' के विरोध में चल रहे बालगंगाधर तिलक के स्वदेशी आंदोलन से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने पहले शिक्षित जनों ( गिन्दन गुट ) का संघटन बनाने का प्रयास किया परन्तु उसमें सफल न हो सके। जब अंग्रेज प्रथम विश्व युद्ध में फंसे हुए थे, उसी दौरान गेंदालाल दीक्षित ने शिवजी समिति बना कर अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति शुरू कर दी थी। 

बिस्मिल, गेंदालाल की क्रांतिकारी योजनाओं से बहुत प्रभावित थे इसलिए स्वामी सोमदेव ने गेंदालाल दीक्षित को रामप्रसाद बिस्मिल से परिचित करवाया क्योंकि वे चाहते थे कि इस क्रांति के इस कार्य में रामप्रसाद बिस्मिल की मदद कोई अनुभवी व्यक्ति करे।  गेंदालाल दीक्षित ने रामप्रसाद बिस्मिल को प्रेरणा देकर साल 1916 में चंबल के बीहड़ में ‘मातृवेदी क्रन्तिकारी संगठन की स्थापना की और सशस्त्र क्रांति के लिए हथियार के लिए चम्बल के बागी डाकुओं को क्रांति में उतरा। गेंदालाल दीक्षित नाम और भेष बदलने में माहिर थे सो लंबे समय तक अंग्रेजों को उनको भनक नहीं लगी। मातृवेदी संगठन का मुख्य उद्देश्य देश प्रेम की भावना को जागृत करना, उन्हें क्रांति के लिए तैयार करना और सशस्त्र संघर्ष के लिए धन इकट्ठा करना था। मातृवेदी' का जिक्र प्रभा पत्रिका में छपे रामप्रसाद बिस्मिल के लेख में मिलता है। कमांडर इन चीफ गेंदालाल दीक्षित की नेतृत्व  वाला यह संगठन कई विभागों में बंटा था। मातृवेदी संगठन को  प्रचार, सैन्य पहलुओं, गुप्त सेवा और औद्योगिक गतिविधि से निपटने के लिए चार शाखाओं में विभाजित किया गया था। संगठन के पास 500 घुड़सवार, 2000 पैदल सिपाही, हथियारों का जखीरा था। कोष में आठ लाख से अधिक संपत्ति थी। दिसंबर 1915 में अफगानिस्तान में गठित 'आजाद हिंद सरकार' के समानांतर चंबल में यह संगठन देश की आजादी के लिए लड़ रहा था। 

गेंदालाल दीक्षित अनुभवी थे उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के मार्गदर्शन किया और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की योजना बनाई थी बाद में बिस्मिल को बंदूक चलाने की ट्रेनिंग गेंदालाल दीक्षित ने ही बाह-पिनाहट के पास चंबल के बीहड़ में दी। आगे चलकर चम्बल के बाग़ी ब्रह्मचारी लक्ष्मणानंद और बाग़ी सरदार पंचम सिंह जैसे डकैत मातृवेदी संगठन में जुड़े और देवनारायण भारतीय, श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, शिवचरण लाल शर्मा भी शामिल हुए। क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित ने चंबल के एक डकैत गैंग के साथ मिल कर आगरा के बाह तहसील के हथकांत पुलिस थाने में डकैती डाली। इसमें 21 अंग्रेज पुलिस कर्मी मारे गए थे। इसके बाद गेंदालाल चंबल के ही ब्रह्मचारी डकैत गिरोह के साथ अंग्रेज सरकार की ट्रेजरी लूटने की योजना बनाते एक मुठभेड़ में गिरफ्तार कर लिए गए। इन डकैतियों से मिले धन से हथियार खरीद कर 09 अगस्त 1915 को हरदोई से लखनऊ जा रही रेलगाड़ी से काकोरी में सरकारी खजाना लुटा गया था। 

मातृवेदी संगठन छापामार युद्ध मे निपुण था और उत्तर भारत मे काफी विस्तृत हो गया था, इस संगठन में उस समय 5 हज़ार लड़ाका सैनिक  पंजाब और दिल्ली के क्रांतिकारियों के साथ भी ये संगठन इतना मजबूत हो चुका था कि ब्रिटिश हुकूमत का तख्ता पलटने की पूर्ण तैयारी थी। बागी दुर्दांत डकैत लक्ष्मणानंद ब्रह्मचारी और डकैत ठाकुर पंचमसिंह के संगठित दल ने ग्वालियर तथा यमुना और चम्बल नदी के किनारे के भागों सरकारी कोष पर सफलतापूर्वक अनेक डाके डाले और धन का उपयोग क्रांति के लिए हथियारों की व्यवस्था की देश के अलग अलग हिस्सों में आज़ादी के लिए काम कर रहे अंतरप्रांतीय संगठनों और उनके नेताओं में जिसमें गेंदालाल दीक्षित भी शामिल थे। गेंदालाल दीक्षित ने अन्य क्रांतिकारियों के साथ संगठित  क्रांति की एक तारीख़ 21 फ़रवरी, 1915 मुकर्रर की। इस क्रांति में राजस्थान के खारवा रियासत से 10 हज़ार सैनिकों का साथ मिलना भी तय हो गया था, किन्तु एक मुखबिरी के कारण चम्बल के बीहड़ में मातृवेदी सगठन को ग्वालियर स्टेट और अँग्रेजों ने मिलकर छिन्न भिन्न न किया होता तो ये संगठन देश की तत्कालीन सत्ता को बदल के रख देता। 

चम्बल के बीहड़ो में जहर देकर एक मुखविर ने छापामार क्रान्तिकारियों को मौत के मुंह मे धकेल दिया। अंगरेज सैनिको और मातृवेदी संगठन बीच हुई गोलीबारी में मातृवेदी के 36 क्रांतिकारियों को वीरगति मिली और 50 अंग्रेज सैनिक मारे गए। इस गोलाबारी में पं. गेंदालाल दीक्षित की आँख में एक छर्रा लगा और बाईं आँख जाती रही गेंदालाल दीक्षित गिरफ्तार हुए और उन्हें कड़े पहरे के बीच ग्वालियर के किले की अँधेरी कोठरी में रखा गया, जहाँ उन्हें छय रोग हो गया  फिर उन्हें अंग्रेज सरकार ने आगरा शिफ्ट किया। जहां किले की जेल में राम प्रसाद विस्मिल से सम्पर्क हुआ और सारी योजना की बातें संस्कृत में की जिसे पहरेदार समझ नही सके और जेल से फरार होने की रणनीति तय की गई, मैनपुरी में बंद क्रांतिकारियों के कई रहस्य बताने का झांसा देकर अंग्रेज अधिकारियो को भरोसे में लिया और अपने को मैनपुरी शिफ्ट करवा लिया जहां मातृवेदी संगठन के कई साथी बन्द थे। 

मैनपुरी पहुंचते ही उन्होंने पुलिस से कहा कि इन निर्दोष लोगों को क्यों पकड़ रखा है सारा षड्यंत्र मैं जानता हूँ और इन्हें कुछ नहीं मालूम, इस तरह वहां कई क्रान्तिकारीयो के साथ गेंदालाल दीक्षित पर भी सम्राट के विरुद्ध द्रोह का केस चलाया गया।  इस मुकदमें को भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मैनपुरी कांसीपिरेन्सी केश कहा गया। मुकदमे के दौरान गेंदालाल दीक्षित ने एक चाल चली और अपना पुलिस के साथ भरोसा कायम किया तो उन्हें और सरकारी गवाह को एक साथ एक ही हथकड़ी से बांधकर जेल में डाल दिया गया और फिर जेल के सींखचे को बारिश के वीच काटकर आप उस जेल से गवाह को साथ लेके भाग निकले और बिना रुके कई कई दिनों तक भूखे प्यासे गुप्त रूप से क्रन्तिकारी गतिविधियाँ अंजाम देते रहे। सरदार के छद्दम भेष में दिल्ली पहुंचे, दिल्ली के आगरा रोड पर बने एक मंदिर में उन्होंने शरण ली और फरार हालत में जीवन-यापन के लिये उन्होंने एक प्याऊ में नौकरी कर ली नाकाम क्रांति के बाद भी गेंदालाल दीक्षित ने हिम्मत नहीं हारी। 

वह सिंगापुर गए और गदर पार्टी के नेताओं के साथ मिलकर फिर ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ रणनीति बनाई। बर्मा और संघाई जाकर वहाँ काम कर रहे क्रांतिकारी संगठनों से देश की आज़ादी के लिए समर्थन माँगा। 'मातृवेदी' को नये सिरे से खड़ा करने के लिए काफ़ी जद्दोजहद की, लेकिन कामयाब नहीं हुए। पुलिस ने सभी हथकण्डे अपना लिये परन्तु उन्हें अन्त तक खोज नहीं पायी और हताश निराश होकर अंग्रेज सरकार को फरार स्थिति में ही मुकदमे का जजमेंट सुनाना पडा। गेंदालाल दीक्षित के केस की सुनवाई उस समय के प्रशिद्ध वकील देशवन्धु चितरंजन दास ने निशुल्क की थी। 

ऐसा कहा जाता है कि मुसीबत में अपनी छाया भी साथ छोड़ देती है। क्रांतिकारियों के साथ तो यह पूरी तरह सत्य था। जब कभी वे संकट में पड़े, तो उन्हें आश्रय देने के लिए सगे-संबंधी ही तैयार नहीं हुए। पंडित गेंदालाल दीक्षित जी अपने एक संबंधी के पास कोटा पहुंचे; पर वहां भी उनकी तलाश जारी थी। इसके बाद वे किसी तरह अपने घर पहुंचे; पर वहां घर वालों ने साफ कह दिया कि या तो आप यहां से चले जाएं, अन्यथा हम पुलिस को बुलाते हैं। अतः उन्हें वहां से भी भागना पड़ा। तब तक वे इतने कमजोर हो चुके थे कि दस कदम चलने मात्र से मूर्छित हो जाते थे। किसी तरह वे दिल्ली आकर पेट भरने के लिए एक प्याऊ पर पानी पिलाने की नौकरी करने लगे। इस बीच क्षय रोग से हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी तो उन्हें दिल्ली के इर्विन अस्पताल में भर्ती कराया और बीमारी की वजह से दिल्ली के एक अस्पताल में आपका निधन 32 वर्ष की उम्र में 21 दिसम्बर, 1920 हो गया। गेंदालाल जी जैसे महान क्रांतिकारी इस दुनिया से चले गए और किसी को पता भी नहीं चला जबकि उनकी इच्छा थी कि मेरी मौत गोली से हो। 

गेंदालाल दीक्षित की जीवनी उनकी पत्नी फूलमती द्वारा गेंदन चरित के नाम से प्रकाशित हुई । हद तो यह रही कि आजादी के इस मतवाले की सुध स्वतंत्रता के वर्षों बाद तक नहीं ली गई। शोधार्थी शाह आलम बताते हैं कि इनके गौरवशाली इतिहास का जिक्रकर औरैया नगर पालिका और दोस्तों का सहयोग लेकर 12 अगस्त 2015 को शहर में उनकी प्रतिमा स्थापित कराई। पैतृक गांव मई में उनकी निशानियों को संजोने का कोई सरकारी प्रयास नहीं हुआ। 

चंबल फ़ाउंडेशन से हाल ही में प्रकाशित ‘कमांडर-इन-चीफ़ गेंदालाल दीक्षित लेखक-पत्रकार-सोशल एक्टिविस्ट शाह आलम की एक ऐसी किताब है, जिसमें उन्होंने देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले इस महान योद्धा के संघर्षमय जीवन की झलकियाँ पेश की हैं, जिसे हमारी सरकारों ने तो बिसरा ही दिया है, नई पीढ़ी भी नहीं जानती कि क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित का देश की आज़ादी में क्या योगदान है? 

साल 2021 क्रांतिवीर गेंदालाल दीक्षित की शहादत का सौवाँ साल है और इस शताब्दी वर्ष में उन्हें याद करना, देश की उस क्रांतिकारी परम्परा को याद करना है, जिसके नक्शेक़दम पर चलकर चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और उधम सिंह आदि जोशीले, जांबाज क्रांतिकारी देश की आज़ादी के लिए कुर्बान हुए।


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