डाकुओं के आतंक लिए कुख्यात चंबल घाटी में आजादी की मुहिम में अर्जुन सिंह भदौरिया का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। उन्हें इसी मुहिम के चलते कमांडर नाम से पुकारा गया।
कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया |
10 मई 1910 को इटावा जिले के ब्लाक बसरेहर क्षेत्र के लोहिया खुर्द गांव में जन्मे अर्जुन सिंह भदौरिया ने 1942 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ आज़ादी का बिगुल फूंक दिया और सशस्त्र लालसेना का गठन किया, जिसकी प्रेरणा उन्हें रूस में गठित लालसेना से मिली थी जो रूस में बहुत ही सक्रिय सशस्त्र बल था। जब चंबल में कमांडर साहब ने लालसेना खड़ी की तो लोग एक के बाद एक जुड़ना शुरू हो गये और एक समय वो आया जब लालसेना का प्रभुत्व पूरे चंबल में नजर आने लगा, लाल सेना में करीब पांच हजार सशस्त्र सदस्य आजादी के आंदोलन में हिस्सेदारी ले रहे थे। उन्होंने सक्रिय क्रांतिकारी भूमिका अपनाई और लाल सेना में सशस्त्र सैनिकों की भर्ती की तथा ब्रिटिश ठिकानों पर सुनियोजित हमला करके आजादी हासिल करने का प्रयास किया। इस दौरान अंग्रेजी सेना की यातायात व्यवस्था, रेलवे डाक तथा प्रशासन को पंगु बना दिया गया था। इस क्रांतिकारी संग्राम में करो या मरो के आंदोलन में कमांडर को 44 साल की कैद हुई। अंग्रेज इनसे इतने भयभीत थे कि उन्हें जेल में भी हाथ पैरों में बेड़ियां डालकर रखा जाता था। अपनी जुझारू प्रवृत्ति और हौसले के बूते अंग्रेजी हुकूमत की बखिया उधड़ने वाले अर्जुन सिंह भदौरिया को स्वतंत्रता सेनानियों ने कमांडर की उपाधि दी थी।
डा० लोहिया के बाद यदि कोई दूसरे नाम संघर्षशील नेता के रूप में आते हैं तो वह थे उनके साथी कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया। कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया 1957 के बाद 1962 और 1977 मे भी इटावा के सांसद निर्वाचित हुए । संसद में भी जुझारू प्रवृत्ति की वज़ह से जीवनकाल में लोगों की आवाज उठाने के कारण वे 52 बार जेल भेजे गए। इसमें आपातकाल भी शामिल है। आपातकाल में उनकी पत्नी तत्कालीन राज्यसभा सदस्य श्रीमती सरला भदौरिया और उनके पुत्र सुधींद्र भदौरिया अलग-अलग जेलों में रहे।
1942 सशस्त्र लालसेना |
जनहित के बडे और अहम मुद्दे उठाने में कमांडर का कोई सानी नहीं था। पहली बार 1957 में सांसद बनने के बाद चंबल में कमांडर के रूप में लोकप्रिय अर्जुन सिंह भदौरिया ने सदियो से उपेक्षा की शिकार चंबल घाटी में विकास का पहिया चलाने के इरादे से रेल संचालन का खाका खींचते हुए 1958 में तत्कालीन रेल मंत्री बाबू जगजीवन राम और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सामने एक लंबा चौडा मांग पत्र रखा था जिस पर उनको रेल संचालन का भरोसा भी दिया गया था। कमांडर 1957 के बाद 1962 और 1977 मे भी इटावा के सांसद निर्वाचित हुए।
पुलिस के खिलाफ इटावा के बकेवर कस्बे में 1970 के दशक में उन्होंने आंदोलन चलाया था। लोग उसे आज बकेवर कांड के नाम से जानते हैं। इटावा में शैक्षिक पिछड़ेपन समस्या आवागमन के लिए पुलों का आभाव जैसी समस्याओं को मुख्यता के साथ कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया उठाते रहे। 2004 में जब उन्होंने अंतिम सांस ली, अर्जुन सिंह भदौरिया की एक खासियत यह भी रही है कि चाहे अग्रेंजी हुकूमत रही हो या फिर भारतीय कमांडर कभी झुके नहीं।